बचपन के दिन और उनकी सुनहरी यादें.

बचपन के दिन और उनकी सुनहरी यादें.

बचपन ( Bachpan ).

किसी भी व्यक्ति के जीवन का सब से खुबसूरत हिस्सा उसका बचपन होता है, जब वह इस दुनिया की किसी भी दुःख सुख से अनजान होता है. वह अपने ही दुनिया में डूबा रहता है उसे किसी भी चीज से कोई फर्क नही पड़ता उसकी अपनी एक अलग ही दुनिया रहती है, जहाँ पर वह अपने कल्पनाओं और अपने में चल रही अनेक उथल-पुथल से घिरा हुआ होता है. 

उसके पास इतने सवाल होते है की उसके घर वाले भी परेसान हो जाते है की यह बच्चा आखिर बोलता कितना है, लेकिन उस बच्चे का ज्यादा बोलना उसका शरारत करना सबकुछ उन्हें बहुत अच्छा लगता है. क्योंकि उन्हें पता होता है की जब वह भी छोटे थे तो ऐसे ही दूसरों को परेसान करते रहते थे. हर व्यक्ति जब बड़ा होता है और दुनिया के रंग-रूप से वाकिफ होता है तो वह बस यही सोचता है की, कुछ ऐसा हो जाय जिससे वह फिर से अपने बचपन में चला जाय और फिर दुबारा इस मतलब की दुनिया में वापस न आये.

बचपन की यादें ( Bachpan Ki Yadein ).

तब एक बात बहुत अच्छी होती थी, किसी बात का दुःख ज्यादा नही रहता था सिर्फ कुछ मिनट या कुछ घंटे या फिर अगर बहुत ज्यादा हुआ तो 1 या 2 दिन तक उससे ज्यादा समय नही लगता था. क्योंकि कोई न कोई हमें संभालने के लिए होता था जो हमको ज्यादा देर तक दुखी रहने नहीं देता था. सुबह सोकर उठने के बाद आज के बच्चों की तरह ब्रेड और जैम, पास्ता, मैगी और पता नही क्या क्या मागना, तब हमारी सुबह रात की बची हुई रोटी और चाय या फिर पराठे से होती थी. साथ में गाय/भैंस का ताजा दूध और मोटी-मोटी रोटियों से होती थी.

आइये हम आज आपके बचपन की कुछ यादें ताज़ा कराते है. जिसे मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ की आप एक बार फिर से अपने बचपन में लौट जायेंगे.

बचपन के खेल.

हमारे बचपन में खेल भी बहुत अच्छे-अच्छे रहते थे, जिनसे हमें शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से हमारा शरीर मजबूत होता था. उन खेलों में चोर-पुलिस, लुका-छिपी, कब्बडी, खो-खो, चिन्ह की खोज, शहरों और महापुरुषों के नाम याद करना ये सब महत्वपूर्ण खेल थे जिसे हर व्यक्ति ने बचपन में जरुर खेला होगा. हम लोग अपने खेल में इतने मशगूल हो जाते थे की हमें किसी और चीज का ध्यान ही नहीं रहता था. न समय से खाना हो पाता था न समय से सोना फिर भी हमें किसी प्रकार की कोई दिक्कत नही होती थी.

जब तक हमारे घर का कोई हमें ढूंढने नही आता था तब तक हम घर नही जाते थे. फिर देर से घर पहुचने पर पिताजी की डांट पड़ती थी कभी-कभी तो मार भी पड़ जाती थी. डांट सुनकर माँ के पास चले जाना और उन्हें बताना की आज क्यों देर हो गयी. माँ का प्यार से सिर पर हाथ फेरना और प्यार करना.

झगडे में भी प्यार. 

हम जब छोटे थे तब हम लोग हमेशा एक दूसरे से झगड़ते रहते थे कभी किसी खाने-पीने की चीज के लिए तो कभी किसी खिलौने के लिए अब ये झगड़ा चाहे किसी मित्र से हो या फिर अपने भाई-बहन के साथ में, लेकिन झगड़ा होता जरुर था लेकिन उस झगड़े में आज की तरह खुन्नस नहीं रहती थी एक पल में झगड़ा और अगले ही पल फिर से एक साथ खेलना उठना-बैठना शुरू हो जाता था. कभी कभी यह झगडा 1 या 2 दिन तक बना रहता था लेकिन ऐसी अवस्था तब होती जब झगड़ा हुआ हो और उपर से घर वालों की मार भी आपको पड़ी हो इस अवस्था में कुछ दिन न किसी से बोलना न किसी से कुछ कहना. 

हम अपने मन में प्रतिज्ञा करते थे की अब उस फला व्यक्ति से न तो बात करेंगे न ही उसको साथ खेलेंगे, लेकिन जैसे ही कुछ दिन व्यतीत होता था वैसे ही सब गुस्सा हवा हो जाती थी और फिर से हम उसके साथ में घूमना, खेलना, चीजों को शेयर करना शुरू कर देते थे. वास्तव में वो दिन कितने अच्छे रहते थे.

कल्पनाओ से भरी हुई एक अलग ही दुनिया.

बचपन में हमारी दुनिया सिर्फ और सिर्फ कल्पनाओ से भरी हुई रहती थी. हम जब भी खाली बैठे होते थे तब हमारे दिमाग में ढेर सारी कल्पनाओ का निवास स्थान रहता था जैसे –

  • किसी कौवे को ऊपर हवा में उड़ते देखकर कहना की ये मेरे मामा जी का प्लेन है.
  • क्षितिज ( जहाँ पृथ्वी और आकाश मिले हुए प्रतीत होते है ) को देखकर उसकी तरफ दौड़ना और उसके समीप पहुचने की कोशिश करना.
  • रात को किसी प्लेन को उड़ते हुए देखकर कहना की ये अखबार में न्यूज छापने के लिए खबर इकठ्ठा कर रहा है.
  • बादलों के झुण्ड को देखकर कल्पना करना की काश हम उसके ऊपर पहुँच पाते तो उसके ऊपर खेलते एक बादल के टुकड़े से दूसरे पर कूदते और वही पर सोते.
  • तारों को देखकर ये कहना की ये हमारे दादी-दादा है जो हमें देख रहे है ( किसी की मृत्यु के पश्चात ).
  • टूटते तारों को देखकर मन्नत मांगना हालाकि ये प्रथा बचपन, जवानी और बुढ़ापे तक रहता है.

निष्कर्ष :

हम सभी यही चाहते है की हमारे वो दिन अगर वापस आ जाते तो कितना अच्छा रहता. इस बेमान दुनिया से बिना किसी मतलब के जहाँ हमें कुछ भी अच्छे और बुरे की समझ नही रहती थी. फिर भी हम अपनी मस्ती में ही ज़िन्दगी को जिया करते थे. इस बात से बेखबर की आने वाला भविष्य हमसे हमारी सारी खुशियाँ और सुकून छीन लेगा. फिर न मां के लिए उतना प्यार रह जायेगा न बाबूजी के लिए उतना दुलार न ही अपने से छोटे या बड़े भाई/बहन के लिए लगवा.

काश हमें अवेंजेर मूवी का वो समय-चक्र ( Time-Travel ) वाला वो यंत्र मिल जाता तो हम फिर से अपने बचपन में वापस चले जाते और फिर कभी भी लौटकर इस मतलबी दुनिया में नहीं आते.हम अक्सर जगजीत सिंह का वो गजल सुनते है और अपने पुराने दिनों को याद करते है –

” ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो. भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी.

मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी.”

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2 thoughts on “बचपन के दिन और उनकी सुनहरी यादें.”

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