Biography of Swami Vivekanand and his Quates

स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय और उनके विचार : Biography of Swami Vivekanand and his Quates

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स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय और विचार : Biography of Swami Vivekanand and his Quates 

हेल्लो दोस्तों नमस्कार स्वागत है आप सभी का हम बात करने वाले है. भारत के एक ऐसे महापुरुष जिसने पुरे विश्व को ये बतलाया की अगर पूरे विश्व में किसी देश के पास भी विश्वगुरु बनने की क्षमता है तो वो सिर्फ भारत देश में है और कहीं नहीं, जिन्होंने पूरे विश्व को हिन्दू धर्म के प्रति जागरूक कराया और बताया की हम ऐसे धर्म के प्रति आस्था रखते है जिसने सभी धर्मो और सम्प्रदायों का आदर और सम्मान किया है जिसने हमेशा सर्वधर्म समभाव की भावना रखी हुई है.

Biography of Swami Vivekanand and his Quates
Biography of Swami Vivekanand and his Quates

हम ऐसे महापुरुष की बात कर रहे है जिसको शिकागो सम्मलेन में बोलने का अवसर नहीं दिया जा रहा था, लेकिन जब अवसर दिया गया और वो बोला तो उसके सिर्फ मेरे अमेरिकी भाइयों एवं बहनों बोलने पर ही पूरे सभा ने 5 मिनट तक ताली बजाई.अब तक तो आप सब समझ गए होंगे की मैं किसकी बात कर रहा हूँ, जी हाँ मैं स्वामी विवेकानंद जी की बात कर रहा हूँ, तो चलिए ज्यादा देरी न करते हुए हम उनके पुरे जीवन के बारें में बात करते है.

स्वामी विवेकानन्द का जन्म कब और कहा हुआ था तथा उनका प्रारंभिक जीवन :

स्वामी विवेकानन्द का जन्म कलकत्ता के एक कायस्थ परिवार में 12 जनवरी 1863 ( संवत 1920 ) को हुआ था, इनके घर का नाम वीरेश्वर तथा बुलाने वाला नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था, इनके पिताजी विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक सुप्रसिद्ध वकील थे, तथा इनकी माताजी भुवनेश्वरी देवी एक कुशल गृहणी और धार्मिक विचारों वाली महिला थी, जिनका पूजा-पाठ में बहुत मन लगता था. वो भगवान शिव की परम भक्त थी और हमेशा शिव की आराधना करती रहती थी.
 
इनके दादा दुर्गाचरण दत्त संस्कृत और फ़ारसी के विद्वान् थे, घर में ऐसा पढाई-लिखाई और धार्मिक पूजा-पाठ के माहौल का नरेन्द्र पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और उनका झुकाव ईश्वर तथा धार्मिक ग्रंथों आदि पर रहने लगा, ये कभी-कभी अपने अपने माता-पिता से ऐसे सवाल किया करते थे जिनका जवाब देना उनके बस में नहीं था.

विवेकानंद का बचपन

विवेकानंद बचपन से ही बहुत तेज बुद्धि के थे और बहुत ही शरारती थे, इनके घर वालों को अक्सर इनका शिकायत मिलता रहता था, इनके घर में रोज पूजा-पाठ और कीर्तन का कार्यक्रम चलता रहता था, जिससे इनके मन में ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा होती चली गयी. उनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी की अगर वो एक बार किसी चीज को सुन या देख लेते थे तो वो नहीं याद हो जाता था. उनसे जुड़ा एक किस्सा है जो आप सभी पाठको को जरुर पता होना चाहिए. 
 
एक बार नरेंद्र अपने कक्षा में बैठे हुए थे और अपने सहपाठियों से बातचीत कर रहे थे, और उनके अध्यापक उन सभी लोगों को पढ़ा रहे थे जब उनके शिक्षक ने देखा की किसी भी विद्यार्थी का ध्यान पढाई में नहीं है तो वो बहुत नाराज हुए और एक-एक करके सभी बच्चों से पूछने लगे की उन्होंने अभी तक क्या पढाया है, कोई भी बच्चा इसका जवाब नहीं दे सका और जब बारी नरेंद्र की आई तो उन्होंने सब सही-सही बता दिया जो अध्यापक ने पढाया था, इससे अध्यापक बहुत आश्चर्यचकित हुए और उनके बुद्धि-क्षमता को देखकर बहुत खुश हुए.
 

स्वामी विवेकानंद की शिक्षा :

सन 1871 में नरेन्द्र का दाखिला ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के संस्थान मेट्रोपोलिटन में दाखिला लिया तब उनकी उम्र 8 वर्ष की थी, वहां 6 वर्ष पढाई करने के पश्चात उनका परिवार 1877 में वापस रायपुर चला आया और वही पे रहने लगा, सन 1879 में एक मात्र ऐसे विद्यार्थी थे जिसने प्रेसिडेंसी कालेज की प्रवेश परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था. 
 
नरेन्द्रनाथ भगवत गीता, रामायण, महभारत, वेद, उपनिषद, दर्शन, धर्म, साहित्य इत्यादि का अध्ययन बहुत ही आत्मीयता से करते थे और, उन्होंने 1881 में इन्होने ललिता कला की परीक्षा पास करके 1884 में कला वर्ग से स्नातक की डिग्री प्राप्त कर ली. नरेन्द्र ने हर्बर्ट स्पेंसर की एक किताब Education का बंगाली अनुवाद भी किया है.
 
उन्होंने चार्ल्स डार्विन, डेविड ह्युम, जॉन स्टुअर्ट मिल, आगस्ट काम्टे, बारुक स्पिनोजा आदि के बारे में गहनता से पढ़ा और समझा, विलियम हेस्टी ने उनके बारे में लिखा है की  “नरेंद्र वास्तव में एक जीनियस है। मैंने काफी विस्तृत और बड़े इलाकों में यात्रा की है लेकिन उनकी जैसी प्रतिभा वाला का एक भी बालक कहीं नहीं देखा यहाँ तक की जर्मन विश्वविद्यालयों के दार्शनिक छात्रों में भी नहीं।”
Biography of Swami Vivekanand and his Quates
Biography of Swami Vivekanand and his Quates

 

 

ब्रम्ह समाज से जुड़ाव 

1880 में विवेकानंद जी ब्रम्ह समाज से जुड़े लेकिन उन्हें वहां कुछ जमा नहीं फिर 1881 में उन्होंने रामकृष्ण परमहंस जी के बारे में सुना की वो बहुत ही पहुचे संत है और सभी शंकाओं का निवारण करते है, रामकृष्ण परमहंस से उनकी पहली मुलाकात उनके मित्र के घर पर हुई, उनकी ख्याति सुनकर वे उनसे तर्क करने पहुचे लेकिन उनके एक जवाब ने उन्हें उनका शिष्य बनने पर मजबूर कर दिया उन्होंने कहा – जब तक तुम बुद्धिमान बनकर रहोगे तब तक सत्य को नहीं जान पाओगे, हर वस्तु को अपनी बुद्धि से परखने की बजाय अपने विवेक और चित्त से जानो तब जाकर तुम्हे वास्तविक सत्य का ज्ञान होगा, ये बात नरेन्द्रनाथ को समझ आ गयी और तभी से उन्होंने सन्यासी जीवन अपना लिया और तभी से उनका नाम विवेकानंद पड़ा.
 

गुरु के लिए आदर और समर्पण का भाव : 

अपने गुरु के प्रति विवेकानंद जी में बहुत ही आदर और सम्मान भरा हुआ था, वो अपने गुरुजी की हर बात मानते थे, जब उनके गुरु परमहंस जी कैंसर से पीड़ित हुए और सैय्या पर गिर गए तब भी विवेकानंद उतनी ही निष्ठा और समर्पण भाव से गुरु की सेवा करते रहते थे, वे उनके मल-मूत्र इत्यादि को साफ़ करते थे और उनका ख्याल अपने माता-पिता की तरह ही रखते थे, इसीलिए वे परमहंस के सबसे प्रिय शिष्य थे, और अंत में 1886 में उनके गुरु गोलोक चले गए. 
 
उसके बाद से विवेकानंद जी ने पूरे भारत का पैदल भ्रमण करना शुरू किया और लोगों को सच्चे ईश्वर के बारे में बताने लगे, वे कहते थे की हिन्दू धर्म ही एक ऐसा धर्म है जहाँ पर किसी और धर्म की आलोचना या तिरस्कार नही किया जाता है, बल्कि सभी धर्मों को एक समान माना जाता है. उन्होंने जापान के कई शहर, चीन, कनाडा, अमेरिका इत्यादि देशों का भ्रमण कर रहे थे जब वो अमेरिका का भ्रमण कर रहे थे तब उन्हें पता चला की शिकागो में एक अंतर्राष्ट्रीय धर्म सम्मलेन हो रहा है, तब वो वहां भारत का प्रतिनिधित्व करने पहुचे.

शिकागो में विवेकानंद जी का ऐतिहासिक भाषण :

जब स्वामी विवेकानंद जी अमेरिका पहुचे तो वहां के लोगों ने उनका पहनाव जो की गेरुवा वस्त्र था उसे देखकर उनके बारे में अभद्र भाषा बोलने लगे वे लोग भारतीयों को हीन भावना से देखते थे, पहले तो उन्हें उस सम्मलेन में बोलने ही नही दिया जा रहा था, लेकिन एक प्रोफ़ेसर के माध्यम से जब उन्हें बोलने का अवसर मिला तो उन्होंने बता दिया की भारत के लोग कैसे है और वहां की शिक्षा कैसी है. शिकागो में उनका भाषण – 

 

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मेरे अमरीकी भाइयों और बहनों,

आपने जिस उत्साह और स्नेह के साथ हमारा स्वागत किया हैं मैं उसके प्रति आप सभी का आभार प्रकट कर रहा हूँ, मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।

 

मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन सभी वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद प्रकट करता हूँ जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व महसूस करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है।

मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व हो रहा हैं कि हमने अपने हृदय में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है। भाईयो मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:

 

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥

 

अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।

यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है:

 

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

 

अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है चाहे किसी प्रकार से हो मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।

साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।

उनके इस ऐतिहासिक भाषण ने वहां के लोगों में भारत और वहां के लोगों के प्रति एक सम्मान की भावना जागृत कर दी, और बहुत सारे लोग उनके अनुयायी हो गए और उनके दिखाए रास्ते पर चलने लगे.

 

स्वामी विवेकानंद के शिक्षा का दर्शन:

स्वामी जी ऐसी शिक्षा के बिलकुल खिलाफ थे जो शिक्षा सिर्फ लोगों के नौकरी दिलाने और उन्हें बाबू बनाने के काम आये, वे ऐसी शिक्षा को चाहते थे जिससे लोगों का सर्वांगीण विकास हो उन्हें छोटे-बड़े का आदर करना सिखाये, उन्हें निडर और साहसी बनाये,
 
वे कहते थे की ऐसी शिक्षा को आप आदर्श कहेंगे जिससे लोग अच्छे भाषण दे सके और नौकरी प्राप्त कर सके या फिर उस शिक्षा को आप महत्वपूर्ण समझेंगे जिससे व्यक्ति का चरित्र का निर्माण हो और वो निर्भीक मनुष्य बनकर अपना जीवन गुजारे जो अपने धर्म और सच्चाई के लिए हर किसी से लड़ना जानता हो, हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे मनोबल बढे, चरित्र का निर्माण हो और व्यक्ति स्वावलंबी बने.
 

स्वामी विवेकानंद के शिक्षा का सिद्धांत :

  • बालक और बालिकाओ को समान शिक्षा देनी चाहिए उनमे किसी तरह का भेद-भाव नहीं करना चाहिए.
  • शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो मनुष्य के चरित्र मन और बुद्धि तीनो का विकास करती हो.
  • धार्मिक शिक्षा पुस्तकों से ज्यादा आचरण और संस्कार के द्वारा देनी चाहिए.
  • छात्र और शिक्षक का सम्बन्ध जितना नजदीक होगा उतना ही गहरा प्रभाव पड़ेगा.
  • देश की आर्थिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलने के लिए तकनीकी शिक्षा पर जोर दिया जाय.
  • शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो मनुष्य को जीवन पर्यंत सभी कठिनाइयों से लड़ने की क्षमता प्रदान करता हो.

स्वामी विवेकानंद जी के अनमोल बचन : 

  • हम जो बोते हैं वही काटते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं.
  • सत्य को हजारों तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी वह एक सत्य ही होगा.
  • विवेकानंद जी ने कहा था चिंतन करो, चिंता नहीं, नए विचारों को जन्म दो.
  • जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते.
  • जो कुछ भी तुमको कमजोर बनाता है – शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक उसे जहर की तरह त्याग दो.
  • शक्ति जीवन है, निर्बलता मृत्यु है। विस्तार जीवन है, संकुचन मृत्यु है। प्रेम जीवन है, द्वेष मृत्यु है.
  • बाहरी स्वभाव केवल अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रूप है.
  • विश्व एक विशाल व्यायामशाला है जहाँ हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं.
  • खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है.
  • पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है फिर विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार लिया जाता है.
  • एक अच्छे चरित्र का निर्माण हजारो बार ठोकर खाने के बाद ही होता है.
  • एक समय में एक काम करो और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे डाल दो और बाकि सब कुछ भूल जाओ.
  • उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता.
  • हर आत्मा ईश्वर से जुड़ी है, करना ये है कि हम इसकी दिव्यता को पहचाने अपने आप को अंदर या बाहर से सुधारकर। कर्म, पूजा, अंतर मन या जीवन दर्शन इनमें से किसी एक या सब से ऐसा किया जा सकता है और फिर अपने आपको खोल दें। यही सभी धर्मो का सारांश है। मंदिर, परंपराएं , किताबें या पढ़ाई ये सब इससे कम महत्वपूर्ण है.
  • एक विचार लें और इसे ही अपनी जिंदगी का एकमात्र विचार बना लें। इसी विचार के बारे में सोचे, सपना देखे और इसी विचार पर जिएं। आपके मस्तिष्क , दिमाग और रगों में यही एक विचार भर जाए। यही सफलता का रास्ता है। इसी तरह से बड़े बड़े आध्यात्मिक धर्म पुरुष बनते हैं.

 स्वामी विवेकानंद जी की कृतियाँ : 

  • कर्म योग – 1896 
  • राज योग – 1896 
  • Vedant Philosophy 1896
  • Lectures from Colombo to Almora 1897
  • वर्तमान भारत ( बांग्ला भाषा ) 1897 
  • My Master 1901 
  • ज्ञान योग 1899 
  • Seeing beyond the circle (2005)

स्वामी विवेकनद जी से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण किस्से :

  • जब स्वामी जी को ट्रेन के डिब्बे में सोना पड़ा : ये बात शिकागो भाषण से पहले की है जब स्वामी विवेकानंद जी शिकागो सम्मलेन से 4-5 दिन पहले पहुच गए, उस समय अमेरिका में बहुत भीषण ठण्ड पड़ रही थी, और वहां के संसाधन भी बहुत महंगे थे, वहां पहुचते-पहुचते स्वामी जी के पास पैसे नाम मात्र के बचे थे, स्वामी जी बताते है की वहां के लोगो ने उनके पहनावे से उन्हें चोर समझते थे और उन्हें भगा दे रहे थे, वे कहते थे की वो चार पांच दिन मैंने मालगाड़ी के डिब्बे में सो कर गुजारा जब भी मेरा मन विचलित होता मैं अपने देश वासियों को याद करता जिनके सम्मान और प्यार के नीचे मै दबा हुआ था. और उस भाषण के बाद तो सारे अमेरिका में उनको जानने वाले हो गए थे.
  • एक औरत जो उनसे शादी करना चाहती थी : एक बार की बात है स्वामी जी अपने सभी भक्तों से घिरे हुए थे और उनसे बात कर रहे थे तभी एक अंग्रेज महिला उनके पास आकर उनसे बोली की मै आपसे शादी करना चाहती हूँ जिससे आप ही की तरह मुझे एक विद्वान् पुत्र की प्राप्ति हो ये सुनकर वहां उपस्थित सब लोग चकित रह गए, तब स्वामी जी ने कहा की देवी अगर आपको सिर्फ मेरे जैसे पुत्र प्राप्ति की इच्छा है तो वो बिना विवाह के भी संभव है, इसपर वो स्त्री बोली वो कैसे तो स्वामी जी ने कहा की आप मुझे अपना पुत्र मान लो इससे आपकी पुत्र प्राप्ति की इच्छा भी पूरी हो जाएगी और मेरा सन्यासी धर्म भी बचा रह जायेगा, वहां उपस्थित सभी लोग स्वामी जी के इस जवाब से उनकी बुद्धि और सोचने की क्षमता का बखान करने लगे.

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स्वामी विवेकानंद जी की मृत्यु :

अपने आखिरी दिनों में स्वामी विवेकानंद जी अपने गुरु के आश्रम बेलूर मठ पर लौट आये, अपने पूरे जीवनकाल में उन्होंने लोगों को बहुत ही महत्वपूर्ण शिक्षा दी और लोगों को जीवन जीने का असली मतलब समझाया, अपने अंतिम समय में उन्होंने शुक्ल-यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा की इसे समझने और इसका प्रचार-प्रसार करने के लिए एक और विवेकानंद की आवश्यकता होगी.
 
अपनी दिनचर्या का कड़ाई पूर्वक पालन करते हुए उन्होंने 4 जुलाई 1902 को ब्रम्हा में लीन हो गए और उनके पार्थिव शरीर को उनके शिष्यों ने चन्दन की लकड़ी से गंगा के तट पर उनका अंतिम संस्कार कर दिया. बेल्लुर में उनके शिष्यों के द्वारा उनका एक बहुत ही सुन्दर मंदिर बनाया गया.
 
 
Biography of Swami Vivekanand and his Quates
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निष्कर्ष ( Conclusion ) : 

उन्नीस्वी सदी के अंत तक स्वामी विवेकानंद ने भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और हिंशक रूप से ही भारत को आतताइयों से मुक्ति दिलाना चाहते थे, लेकिन उन्हें बाद में उन्हें आभाष हुआ की अभी ये उपयुक्त समय नहीं है ऐसा करने के लिए, फिर उन्होने एकला चलो का सिद्धांत अपनाया.
उनके बारें में रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने कहा है ” यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं.”
 
स्वामी जी सिर्फ एक संत ही नहीं एक विचारक, देश-प्रेमी, कुशल वक्ता भी थे उनके एक आह्वान पर देश की जनता ने जो जनसमर्थन गांधी जी को दिया था वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण चिंगारी बनी थी, जिसने बाद में सभी अंग्रेजो को भारत छोड़ने पर मजबूर किया था.
रोमा रोला स्वामी जी के विषय में कहते है ” उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा ‘शिव’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो.
 
स्वामी जी ने कहा था की उन्हें उनके जैसे सैकड़ों सन्यासी चाहिए जो पूरे भारत में भ्रमण करके ज्ञान का प्रकाश फैला सके, वो धार्मिक आडम्बरों के सख्त विरोधी थे जिसके चलते उन्होंने एक विरोधी बयांन दिया था की देश के सभी मंदिरों के देवी-देवताओं के मूर्तियों को बाहर करके उनके स्थान पर देश के गरीब और असहाय लोगों को बैठाया जाना चाहिए. स्वामी जी ये मानते थे की पूरे विश्व में अगर मानवता के लिए खड़ा होने वाला कोई देश है तो वो सिर्फ भारत ही है, और उन्हें इसपर गर्व होता था.
 

स्वामी विवेकानंद जी से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न : 

प्र. – स्वामी विवेकानंद जी का जन्म कब और कहाँ हुआ था ? 
उ. – कोलकाता 12 जनवरी 1863 को.
 
प्र. – स्वामी विवेकानंद के पिता और माता  का क्या नाम था ?
उ. – विश्वनाथ दत्त, भुवनेश्वरी देवी.
 
प्र. – विवेकानंद ने किसकी स्थापना की ?
उ. – रामकृष्ण मठ, रामकृष्ण मिशन, वेदांत सोसाईटी.
 
प्र.- स्वामी विवेकानंद किसे अपना गुरु बनाया और क्यों ?
उ. – रामकृष्ण परमहंस, उनकी ख्याति और उनके प्रश्नों का समाधान करने की वजह से. 
 
प्र. – स्वामी विवेकानंद का निधन कैसे हुआ ?
उ. – तीसरी बार दिल का दौरा पड़ने से.
 
प्र. – स्वामी विवेकानंद की प्रमुख शिष्य ?
उ. – मार्गरीट एलिजाबेथ नोबेल ( निवेदिता ) 
 
प्र. – स्वामी विवेकानंद की उम्र कितनी थी ?
उ. – 39 वर्ष ( 1863 – 1902 )
 
प्र. – स्वामी विवेकानंद का मंदिर कहाँ है ? 
उ. – बेल्लूर में.
 
प्र. – राष्ट्रीय युवा दिवस कब और क्यों मनाया जाता है ? 
उ.  – 12 जनवरी को, स्वामी जी के जन्मदिवस के अवसर पर
 
 
 
 
तो दोस्तों कैसी लगी आप सबको स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय और उनके  विचार  : Biography of Swami Vivekanand and his Quates के  बारे में पढ़कर हमें जरुर बताये , अगर आपका कोई सुझाव या फिर शिकायत है तो आप हमें ई-मेल कर सकते है धन्यबाद  – 

8 thoughts on “स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय और उनके विचार : Biography of Swami Vivekanand and his Quates”

  1. Pingback: माखनलाल चतुर्वेदी का संछिप्त जीवन परिचय Hindi Lekh %

  2. सर्वप्रथम .. एक शानदार लेख के लिए बधाई स्वीकार करें .. यूँ स्वामी जी के जीवन परिचय से ज्यादातर लोग परिचित हैं और वह आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध भी है .. लेकिन अगर इंटरनेट पर आभाव है तो वह है सही जानकारी का .. आपने न सिर्फ सही जानकारी को पाठकों के सम्मुख रखा है बल्कि लेख को सुन्दर शब्दों से भी पिरोया है .. यही एक लेखक की विशेषकर ब्लॉगर की खासियत होती है .. आशा है आप आगे भी इसी तरह से महान व्यक्तित्वों का जीवन परिचय युवाओं के सम्मुख रखते रहेंगे और उन्हें प्रेरित करते रहेंगें …
    शुभकामनाये ..

  3. I have not checked in here for some time since I thought it was getting boring, but the last few posts are great quality so I guess I’ll add you back to my daily bloglist. You deserve it my friend 🙂

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